मैंने बादल को उड़ते देखा है,
खुले अनंत आकाश में निर्बंध
छूकर तरु की फुनगियों को तो कभी
कपोल विहंसती ललनाओं के
रूप कई -एक धर-धर कर
बादल को मैंने उड़ते देखा है ।।

मैंने बादल को घिरते देखा है,
लिपट चीर-सम चीड़ वृक्षों से
मटियाले अचल शैलाभों पर
जगा धूंध सेअहसासों को
कर उन्हें श्वेताम्बर तो कभी
उन्हें करके श्यामवर्णी
बादल को मैंने घिरते देखा है ।।

मैंने बादल को गिरते देखा है,
बदल रूप रूई के फाहों से
जलकण तो कभी हिमकण बन
संदेश अनंत का धरा पर लाते
टकराकर ऊँची चोटियों से
मैंने बादल को घिरते देखा है ।।