कवि का गुरुत्व

हे कवि क्यों तुम 
निर्जीवों में जान डालकर देखते हो ?
हे कवि क्यों तुम 
माटी को माता मानकर पूजते हो ?
अकथ्य बातों परअथक श्रम कर क्यों
तुम व्यर्थ स्वेद बहाते हो ?

क्या आनंद है कि मिलता
कलम को प्रेयसी मानकर तुमको ?
क्यों ना पूज लक्षमी को तुम
स्वर्ण - कुटी अपनी भी बनाते हो ?

इस तरह के ना जाने कितने
प्रश्नो को पूछ चुका मैं जब
कवि ने आँखें आकाश में गाड़
मुस्काकर यों उत्तर दिया - 

हे प्रिय, सृजन करने में हमें 
सुख ब्रम्हा-सा है मिलता।
निज स्वेद बहाते ताकि
रक्त मनुज का बहे नहीं।।

स्मृतियों पे फूल चढ़ाते ताकि
जीवन-ज्योति बुझे नहीं।
माटी को माता मानकर हम
पुष्पों को सुंदर बनाते हैं।।

लक्ष्मी अनुयायी बुद्धि की है
सो पूजा करें शारदे की हम।
यों अनंत की साध कर हम
प्रकृति को अनंत बनाते हैं।।

 याद रखो, स्मृत होते वे ही
जिन्हें कलमों मे है पिरोया जाता ।
सोना, चाँदी, माणिक, मोती सब 
टूटकर उनकी अमरता दर्शाते हैं।।

नतमस्तक, निरुत्तर सा मैं
भू-केंद्र को देख पड़ा  और पूछा
क्या गुरूत्व है, कवि सा तुममें भी
भूमि ने लजाकर कहा - नहीं।।

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