क्या पूछा था युधिष्ठिर से किसी ने
हे धर्मराज अति बलवान,
हे भारत के विजयी महान,
क्या क्षणिक मुस्कान भी कभी 
तुम्हारे होठों पे आई थी ?
विजयी कुरू की रक्तिम भूमि
क्या फिर तुम्हें कभी भाई थी
क्या उल्लसित हुए थे तुम
जीत पूरे भारत का दांव ?
क्या घृत-दीप प्रज्ज्वलित हुए
भारत के किसी एक भी गांव ?

उत्तर ज्ञात मुझे इन प्रश्नों का
बस एक शब्द में होता है - काश

काश किसी कुरु का परिणाम
कभी, मुस्कान ले कर भी आता
काश किसी पार्थ का अंतिम शर
 संदेशे खुशियों के भी लाता ।।

पर, आह रण के हर पर्व की इति
कर्णों के शवों पे होती है ?
और अभागी विक्षप्त पृथाएँ
उन लाशों पर रोती हैं

झूठी आन और लिप्सा की खातिर
हम अश्रु मोल क्यों लेते हैं
कुरु से, या खाड़ी से कभी
हम शिक्षा क्यों ना लेते हैं ?

काश पढ़ने की जगह
इतिहास हमने सलझा होता - 
काश !

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