जाड़े की सुबह की हर बात निराली है
ओढ़ते हम रजाई देख सूरज की लाली हैं
फिर उठते और
अलसाते, अनमनाते, लडखडाते कदमों से
चल पडे़ हम वीर होने को शहीद हर रोज
क्यों कम है हमारा स्नानागार किसी रणक्षेत्र से

वहाँ थरथराते जवान, साहस का दंभ भर
यहाँ थरथराते हम पानी की ठंढ देखकर
वहाँ - हाथों में बंदूक, नजरें मुस्तैद
पर, नदारद है दुश्मन।
य़हाँ - हाथों में मग, बाल्टी नजरों के सामने
पर आँखें बंद, ताकि
दिखे ना जल और हों ना मजबूर हम
करने को स्नान हर रोज।
पर, सुबह का नाश्ता, हाय
कर याद उसे चल पडते हाथ
और करते खुद को तार-तार 
कि मानो
नाश्ता नहीं परमवीर चक्र मिलना हो।

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