इति मिलन की बेला आज,
सो प्रिय, पसार आँचल ले लो
चार ख्वाबो के खण्ड़,
चंद यादों के लिहाफ़ -
ओढ़कर जिनको बदन पे 
पार कर जाओगे
वर्षा, बसंत, ओस औ' ताप।

कण्ठ में दाह, हृदय में कराह
ना होंगे कभी तुम्हारे पास
क्योंकि तपकर अग्नि में, बनकर धुआं - 
हमारी यादें - 
ले जाएँगी तुम्हें,
तपिश से दूर,
उस आँगन में, 
जहाँ बनाई थी हमने 
रेत की दीवार।

जाड़ों की ठंढ़ी शामों  में 
जब ओढ़ बैठोगे ये लिहाफ,
ऊष्णता हमारे रिश्तों की करेगी 
ऊर्जा के संचार।

अंधेरे और कुहासे को चीर,
आएगी एक लीक और
दिलाएगी याद बार-बार
हमारे संग बिताए दिन चार।

और कह पड़ोगे बरबस तुम
ओह! बीत गए वे दिन
पर जाती नहीं उनकी यादें !

सच, होते हैं वे ही पल अनमोल
जो बैठ जेहन में चुपचाप
दिलाए पुरानी याद - ताजी रखे ये जिंदगी
और चलाए आगे बार बार। 

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